राजधानी रायपुर से लगभग 50 किमी दूर राजिम शहर से 15 किमी की दूरी मे चम्पारण नामक स्थान है। यहाँ पर वैष्णव सम्प्रदाय के प्रवर्तक महाप्रभु वल्लभाचार्य जी का जन्म हुआ था। श्री महाप्रभुजी पुष्टिमार्ग के सर्जक हैं। उनका जन्म 1478 ई. में छत्तीसगढ़ (भारत) की राजधानी रायपुर के पास चंपारण्य गाँव नामक एक छोटे से गाँव में हुआ था। उनका पैतृक गाँव आंध्र प्रदेश राज्य (भारत) में स्थित था। उनके पिता का नाम श्री लक्ष्मण भट्टजी और श्री इल्लमाजी उनकी माता थीं। श्री वल्लभ शुरू से ही सभी के प्रिय थे, इसीलिए उनका नाम ‘वल्लभ’ रखा गया जिसका संस्कृत भाषा में अर्थ है ‘प्रियजन’। श्री वल्लभाचार्य का जन्मदिवस प्रत्येक वर्ष वैशाख कृष्ण एकादशी को जन्मोत्सव चम्पारण में मनाया जाता है।
महाप्रभु के जन्म के समय उनके माता पिता काशी तीर्थ से अपने पैतृक राज्य की यात्रा करने जा रहे थे तब मार्ग में ही मत की प्रसव पीड़ा शुरू हुई और महाप्रभु का जन्म हुआ। बीसवी सदी में उनके अनुयायियो ने वल्लभाचार्य जी का एक प्रसिद्ध मंदिर बनवाया।
श्री महाप्रभुजी वल्लभचार्य प्राकट्य बैठकजी मंदिर
यहाँ चंपेश्वर महादेव मंदिर व श्री महाप्रभु वल्लभचार्य बैठक विशेष आकर्षण का केंद्र है। यहाँ जाने के लिए रायपुर से नियमित बसें चलती है साथ ही रायपुर ही निकटतम रेल्वे स्टेशन भी है। चम्पारण का एक और नाम चांपाझर भी है, छत्तिसगढ़ के पर्यटन स्थलों कि बात आये और चम्पारण का जिक्र ना हो ऐसा संभव हि नहीं है। चम्पारण हर तरह कि खुबियाँ समेटे हुये है चाहे वह प्राकृतिक सौन्दर्य़ कि बात हो या मानवनिर्मित कलाकृतियों कि और तो और मन्दिर ट्रस्ट के लोगों कि सेवा भावना भी प्रशंसनीय है। मन्दिर से जुड़ी अनेक प्राचीन कथाएं है जिनमे श्री वल्लभ जी के जन्म कि कथा बहुप्रचलित है।
महाप्रभु वल्लभ जी के जन्म कि कथा कुछ इस प्रकार प्रचलित है
श्री वल्लभाचार्यजी के जन्म से जुड़ी एक बहुत ही रोचक कहानी है। श्री यज्ञनारायण भट्ट श्री लक्ष्मण भट्ट के पूर्वज थे। श्री विष्णुमुनि श्री यज्ञनारायण भट्ट के गुरु थे। एकबार वे भट्टजी के घर गए। उन्होंने भट्टजी से कहा कि केवल वेदों के अध्ययन से आपको ईश्वर की प्राप्ति नहीं होगी।’ श्री विष्णु मुनि की सलाह मानकर भट्टजी ने विष्णुस्वरूप सौम्यज्ञ शुरू की। उन्होंने इस सौम्यज्ञ को गहन भक्ति के साथ किया। यह यज्ञ (यज्ञ-यज्ञ) के अंत में बलि फल (श्रीफल) चढ़ाने का समय था। भट्टजी ने अपने परिवार के भगवान श्री गोपाल पर ध्यान केंद्रित किया, क्योंकि उन्होंने श्रीफल को अग्नि में अर्पित किया। तत्क्षण वहाँ मुरली मनोहर श्री कृष्ण पीताम्बर-पीली धोती पहने हुए, यज्ञ-अग्नि से प्रकट हुए, इस दिव्य दर्शन से भट्टजी श्रद्धा और विस्मय में खड़े थे। भगवान ने कहा, भट्टजी, मैं आपकी भक्ति से बहुत प्रसन्न हूं। आप जो कुछ भी मांगना चाहते हैं, वह मांग लें। ‘हे प्रभो..! आपको पाकर, मुझे कुछ भी इच्छा नहीं है। मुझे कुछ नहीं चाहिए.., लेकिन आपको..!’ ” भट्टजी, आपकी निःस्वार्थ भक्ति ने मुझे और भी प्रभावित किया है। यह मेरा पवित्र व्रत है कि जब आपके वंश में 100 सोम्याजन पूरे हो जाएंगे, तो मैं स्वयं धर्म की रक्षा के लिए आपके वंशज के रूप में जन्म लूंगा। ”
उनके पूरे जीवन में, भट्टजी ने 32 सौम्यज्ञों को पूरा करने में सफल रहे। उनकी संतान गंगाधरजी ने अपने जीवन काल में 28 सौम्यज्ञों को पूरा किया। उनके पुत्र गणपति भट्ट 30 सौम्यज्ञों को पूरा करने में सफल हुए। उनके पुत्र वल्लभ भट्ट ने 5 सौम्यज्ञों को पूरा किया और उनके पुत्र लक्ष्मण भट्ट ने 5 सौम्यज्ञों को पूरा करने में सक्षम थे, जिसका अर्थ यह भी था कि वंश में 100 सौम्यज्ञ पूर्ण हुए। 100 सौम्यज्ञों को पूरा करने के बाद लक्ष्मण भट्ट ने काशी के ब्राह्मणों को भोजन कराया। जल्द ही इल्लमाजी गर्भवती हो गईं।
काशी-(बनारस) में लगभग छ: मास व्यतीत हुए। भट्टजी खुश थे। लेकिन एक दिन बुरी खबर ने सब खत्म कर दिया। दिल्ली के मुस्लिम सम्राट ने काशी को लूटने के लिए अपनी सेना तैनात कर दी। जान बचाने के लिए लक्ष्मण भट्ट भी अपनी पत्नी को लेकर पैतृक राज्य की ओर चल पड़े। इल्लमाजी गर्भवती और बीमार थीं। यात्रा के दौरान एक रात उन दोनों को एक ही सपना आया। भगवान ने उन्हें कृष्ण के रूप में दर्शन दिए। भगवान ने यह भी कहा, ‘बहुत जल्द मैं तुम्हारे पुत्र के रूप में जन्म लूंगा। जब मैं तुम्हारे पुत्र के रूप में प्रकट होऊंगा तो मुझे यह ‘तुलसीमाला’ पहनाओ। भगवान उन्हें तुलसीमाला प्रदान करें। उनकी यात्रा उन्हें छत्तीसगढ़ के एक घने जंगल चंपारण्य में ले आई। जब वे पहुंचे तो शाम हो चुकी थी। तभी इल्लमाजी को प्रसव पीड़ा शुरू हो गया। कोई चारा न रह जाने के कारण उन्हें वहाँ की यात्रा रोकनी पड़ी। वहाँ काली रात में, इल्लमजी ने एक पेड़ के नीचे एक बच्चे को जन्म दिया। यह 7 महीने का समय से पहले जन्मा बच्चा था। लेकिन बच्चा जन्म के समय निर्जीव था। उस अंधेरी रात में, बच्चे को मृत समझकर उन्होंने अपनी साड़ी का एक टुकड़ा फाड़ा और बच्चे को उसमें लपेट लिया। फिर उन्होंने उसे एक पेड़ की खोह जैसी गुफा में रख दिया और उसे पत्तों से ढक दिया। और अपनी यात्रा पर आगे बढ़ गए। श्री ठाकुरजी ने श्री इल्लमाजी को एक सपना दिया कि वह स्वयं उनके बच्चे के रूप में पैदा हुए। यह सुनकर श्री इल्लमाजी और श्री लक्ष्मण भट्टजी उस पेड़ पर पहुँचे जहाँ उन्होंने श्री वल्लभ को रखा था। वहाँ उन्होंने देखा कि श्री वल्लभ खुशी से खेल रहे थे और उनकी रक्षा के लिए अग्नि ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया था। जैसे ही श्री इल्लमाजी श्री वल्लभ के पास पहुँचे अग्नि अपने आप गायब हो गई और उन्होंने श्री वल्लभ को अपनी गोद में ले लिया।
मंदिर समितियों के द्वारा यात्रियों के रुकने के लिए सुदामापूरी नाम का एक अति सुन्दर धर्म शाला का निर्माण करवाया गया है जिसकी बनावट काफी सुन्दर है। यहाँ पर प्रती वर्ष माघ पूर्णिमा के दिन यहाँ महाप्रभु के सम्मान में विशाल मेले का आयोजन किया जाता है। जिसमे लाखो कि संख्या में भक्त जन शामिल होते है।
महाप्रभु वल्लभाचार्य ने सम्पूर्ण भारत की 3 बार पैदल यात्राएं की और कुछ स्थानो पर रुककर भागवत सप्ताह का पठन किया जिन स्थानो पर उन्होने भागवत पठन किया वहा उनकी बैठकिया है जिनमे से 2 बैठकिया चंपारण मे है पूरे भारत मे इस तरह के 84 बैठकिया है। इस प्रकार महाप्रभु वल्लभाचार्य जी कि जन्म स्थली होने से चम्पारण वैष्णव समुदाय के लोगों के लिये प्रमुख आस्था का केन्द्र है। यहाँ प्रभु वल्लभाचार्य जी की 2 बैठकी है। जो अत्यंत सुंदर और चारो ओर से विभिन्न कलाकृतियों से सुसज्जित है। छतों और दीवारों पर विभिन्न सुंदर आकृतियाँ बनाई गई है।
परिषर में प्रथम तल पर चित्र प्रदर्शनी शाला भी बनाया गया है जहाँ वल्लभ जी के सम्पुर्ण जीवन काल कि घटनाओं का सचित्र वर्णन किया गया है जहाँ लगभग 100 से भी अधिक चित्रों की प्रदर्शनी लगी है चित्रों का समायोजन यहा बहुत अच्छे ढंग से किया गया है। सम्पुर्ण चित्रशाला का रंगरोगन व साज-सज्जा भी ध्यान आकर्षित करती है। जगह जगह आगन्तुको के विश्राम के लिए बैठने की व्यवस्था व विश्रामगृहो का निर्माण किया गया है। यहा यमुना घाट भी महत्वपूर्ण दर्शनीय स्थल है साथ ही घाट के किनारे यमुना जी की मंदिर भी निर्मित है।
गौशाला चम्पारण
साथ ही यहाँ एक गौ शाला भी संचालित है, जहाँ बडी संख्या में गौ पालन किया जा रहा है। गायों के लिये यहाँ बहुत अच्छी व्यवस्था है, उनके स्वस्थ्य एवं खान-पान का भी यहाँ पुरा ध्यान रखा जाता इसका अन्दाजा यहाँ पल रहे हष्ट-पूष्ट गायों को देखकर ही लगाया जा सकता है। यहाँ गर्भवती गायों, नवजात बछडों, व बीमार गायों के लिये अलग-अलग रहने कि व्यवस्था कि गई है। साथ ही हर एक गाय के लिये अलग-अलग चारे व पानी का व्यवस्था है, गायों के लिए पर्याप्त पंखे लगे हुए है, यही नहीं यहाँ गायों का भोजन तैयार करने के लिये एक बडी रसोई भी है। मन्दिर ट्रस्ट के सेवादारों कि सेवाभावना की प्रत्यक्ष झलक यहाँ देखने को मिलती है।
चम्पारण कैसे पहुंचे
सड़क मार्ग से: रायपुर से लगभग 50 किमी की दुरी पर स्थित है। NH 130C से होते हुए राजिम के बाद ग्रामीण सड़क मार्ग से होते हुए चम्पारण पंहुचा जा सकता है।
रेलवे मार्ग से: रायपुर रेल्वे स्टेशन से राष्ट्रिय राजमार्ग NH 130C में राजिम से होते हुए चम्पारण पहुंच सकते है।
वायुयान से: स्वामी विवेकानंद हवाईअड्डे से होकर राजिम पहुँच सकते है।
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- "जय जोहार" आशा करती हूँ हमारा प्रयास "गोंडवाना एक्सप्रेस" आदिवासी समाज के विकास और विश्व प्रचार-प्रसार में क्रांति लाएगा, इंटरनेट के माध्यम से अमेरिका, यूरोप आदि देशो के लोग और हमारे भारत की नवनीतम खबरे, हमारे खान-पान, लोक नृत्य-गीत, कला और संस्कृति आदि के बारे में जानेगे और भारत की विभन्न जगहों के साथ साथ आदिवासी अंचलो का भी प्रवास करने अवश्य आएंगे।
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