छत्तीसगढ़ के बस्तर में होली को लेकर कई ऐतिहासिक परंपराएं हैं। सबसे पहले आराध्य देवी मां दंतेश्वरी के मंदिर में ताड़ के पत्तों की होलिका जलाई गई। यहां से जलते अंगार को माड़पाल लाया गया। इसी से बस्तर राज परिवार के सदस्य कमलचंद भंजदेव ने होलिका दहन किया। भंजदेव ने करीब 700 साल पुरानी परंपरा के अनुसार दंतेश्वरी मंदिर के सामने एक साथ दो होलिका दहन की अनूठी रस्में निभाई। इसे जोड़ा होली भी कहा जाता है। बस्तर के धार्मिक और सांस्कृतिक इतिहास में इन परंपराओं का विशेष महत्व है।
बस्तर की आराध्य देवी मां दंतेश्वरी के मंदिर में ताड़ के पत्तों से होलिका दहन किया गया है। यह रस्म भी सालों से चली आ रही है। लगभग 11 दिनों तक चलने वाले विश्व प्रसिद्ध फागुन मड़ई के पहले दिन ही पूरे विधि-विधान से ताड़फलंगा की रस्म पूरी की गई थी। दंतेश्वरी सरोवर में ताड़ के पत्तों को पहले धोया गया। फिर पूजा कर इन्हें रखा गया। जिसके बाद होलिका दहन के दिन इन्हीं पत्तों से होलिका दहन किया गया। इस दौरान कई क्षेत्रीय देवी-देवताओं के देव विग्रह भी मौजूद रहे। मंदिर के पुजारी रंग-भंग की परंपरा भी निभाई।
दंतेवाड़ा से लाते हैं अंगार
मान्यताओं के अनुसार मंदिर में होलिका दहन के बाद पूरे बस्तर में माड़पाल में होलिका जलाई जाती है। यहां राज परिवार के सदस्य दहन करने की परंपरा निभाते हैं। ऐसी मान्यता है कि, जब कई सालों पहले बस्तर के महाराजा पुरुषोत्तम देव पुरी से रथपति की उपाधि लेकर बस्तर लौट रहे थे तब फागुन पूर्णिमा के दिन उनका काफिला माड़पाल ग्राम पहुंचा था। तब उन्हें इस दिन के महत्व का अहसास हुआ कि फागुन पूर्णिमा है और आज के दिन भगवान जगन्नाथ धाम पुरी में हर्षोल्लास के साथ राधा-कृष्ण के साथ जमकर होली खेलते हैं।
राजा ने माड़पाल में होली जलाकर उत्सव मनाया था। तब से यहां सबसे पहले होलिका दहन करने की परंपरा है। कमलचंद भंजदेव रथ पर सवार होकर माड़पाल पहुंचे। इलाके के ग्रामीणों ने रथ को खींचा। उन्होंने बताया कि, दंतेवाड़ा से लाए गए अंगार से पूरे विधि-विधान से होलिका दहन किया गया। माड़पाल में होलिका दहन उत्सव भी मनाया जाता है। इस दौरान गांव के सभी लोग इकट्ठा होते हैं। रात भर यहां तरह-तरह के आयोजन चलते हैं।
धुरवा समाज ने निभाई नृत्य की परंपरा
धुरवा समाज के लोगों ने डंडारी नृत्य किया। होलिका दहन के दिन इस नृत्य की परंपरा भी कई सालों से चली आ रही है। लोगों ने बताया कि इस दिन वे पारंपरिक सफेद रंग का पोशाक पहनते हैं। फिर गोल घेरा बनाकर हाथों में डंडा ( छोटी लकड़ी) पकड़ कर नृत्य करते हैं। इसी का नाम डंडारी नृत्य है। होलिका दहन के बाद रातभर यह नृत्य किया जाता है।
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- "जय जोहार" आशा करती हूँ हमारा प्रयास "गोंडवाना एक्सप्रेस" आदिवासी समाज के विकास और विश्व प्रचार-प्रसार में क्रांति लाएगा, इंटरनेट के माध्यम से अमेरिका, यूरोप आदि देशो के लोग और हमारे भारत की नवनीतम खबरे, हमारे खान-पान, लोक नृत्य-गीत, कला और संस्कृति आदि के बारे में जानेगे और भारत की विभन्न जगहों के साथ साथ आदिवासी अंचलो का भी प्रवास करने अवश्य आएंगे।
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