नदियों के किनारे सभ्यता का जन्म हुआ और विकास भी हुआ। महानदी के किनारे जन्मे इस महान और विकसित सभ्यता का क्षेत्र सिरपुर जिसका नाम कभी श्रीपुर हुआ करता था। श्री माने महालक्ष्मी और सच में कभी माता महालक्ष्मी इस क्षेत्र में निवास करती थी और इस बात के साक्षात् प्रमाण है यहाँ की भव्य मंदिर जो अब खंडहरों में परिवर्तित हो चुके है। किन्तु उन भग्नावशेषों को देखकर अब यह अंदाज़ा लगाना बहुत मुश्किल है कि सिरपुर कभी दक्षिण कौशल की न केवल राजधानी बल्कि औद्योगिक क्षेत्र हुआ करती थी।
सिरपुर की प्राचीनता का सर्वप्रथम परिचय शरभपुरीय शासक प्रवरराज तथा महासुदेवराज के ताम्रपत्रों से उपलब्ध होता है जिनमें ‘श्रीपुर’ से भूमिदान दिया गया था । सोमवंशी शासकों के काल में सिरपुर दक्षिण कोसल का महत्वपूर्ण राजनैतिक एवं सांस्कृतिक केंन्द्र के रुप में प्रतिष्ठित हुआ । इस वंश के महाप्रतापी शासक महाशिवगुप्त बालार्जुन के 58 वर्षीय सुदीर्घ शासन काल (595 से 653 ईसवी) में यहां अनेकानेक शिव और विष्णु मंदिरों, सरोवर तथा उद्यानों का निर्माण करवाया गया । सातवीं सदी ईस्वी में चीन के महान पर्यटक तथा विद्वान ह्वेनसांग ने दक्षिण कोसल की 639 ईसवी में यात्रा की थी।
यह दुःसंयोग है या दुर्भाग्य यह छत्तीसगढ़ में बौद्ध संप्रदाय का अंत हुआ और इसी के साथ ही महाशिवगुप्त बालार्जुन के पश्चात सिरपुर का राजनैतिक एवं सांस्कृतिक महत्व क्रमशः क्षीण होने लगा तथा दक्षिण कोसल के इतिहास के स्वर्णयुग का पटाक्षेप हो गया।
ताले में बंद भगवान लक्ष्मण जी जो आज भी अपने पूजा करने की प्रतीक्षा में।
इतिहासकारों की माने तो सिरपुर में शैव मत मानने वाले सोमवंशी राजाओ का शासन था। जबकि राजा हर्षगुप्त की पत्नी रानी वासटादेवी, वैष्णव संप्रदाय से संबंध रखती थीं, जो मगध नरेश सूर्यवर्मा की बेटी थीं। राजा हर्षगुप्त की मृत्यु के बाद ही रानी ने उनकी याद में इस मंदिर का निर्माण कराया था। यही कारण है कि लक्ष्मण मंदिर को एक हिन्दू मंदिर के साथ नारी के मौन प्रेम का प्रतीक भी माना जाता है।
नागर शैली में बने इस मंदिर को भारत का पहला ऐसा मंदिर माना जाता है, जिसका निर्माण लाल ईंटों से हुआ है। हालाँकि छत्तीसगढ़ में प्रायः सभी प्राचीन मंदिर नागर शैली में लाल ईंट से बने है। लक्ष्मण मंदिर की विशेषता है कि इस मंदिर में ईंटों पर नक्काशी करके कलाकृतियाँ निर्मित की गई हैं, जो अत्यंत सुन्दर हैं क्योंकि अक्सर पत्थर पर ही ऐसी सुन्दर नक्काशी की जाती है। गर्भगृह, अंतराल और मंडप, मंदिर की संरचना के मुख्य अंग हैं। साथ ही मंदिर का तोरण भी उसकी प्रमुख विशेषता है।
मंदिर के तोरण के ऊपर शेषशैय्या पर लेटे भगवान विष्णु की अद्भुत प्रतिमा है। इस प्रतिमा की नाभि से ब्रह्मा जी के उद्भव को दिखाया गया है और साथ ही भगवान विष्णु के चरणों में माता लक्ष्मी विराजमान हैं। इसके साथ ही मंदिर में भगवान विष्णु के दशावतारों को चित्रित किया गया है। हालाँकि यह मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित माना जाता है लेकिन यहाँ गर्भगृह में लक्ष्मण जी की प्रतिमा विराजमान है। यह प्रतिमा 5 फन वाले शेषनाग पर आसीन है।
किन्तु जब मैं सिरपुर दर्शन करने गई थी तब मुझे बौद्ध मंदिरों से ज्यादा अनेकानेक शिव और विष्णु मंदिरों के दर्शन हुए जिसमें भव्य लक्ष्मण मंदिर, श्री राम मंदिर, गंधेश्वर महादेव मंदिर दिखे। इसके अतिरिक्त प्रत्येक मंदिर में नटराज, उमा-महेश्वर, वराह, विष्णु, वामन, महिषासुरमर्दिनी, नदी देवियां आदि की कलात्मक मूर्तियां जो कि खुदाई से प्राप्त हुई है, सुरक्षित रखी गई हैं।
बुद्ध की एक्का दुक्का प्रतिमाओं और मंदिर को छोड़ दे तो आपको पता चलेगा की इस क्षेत्र में शैव मत और विष्णु मत को मानने वाले एकसाथ रहते थे। सावन में बोलबम वाले कांवड़ यात्री गंधेश्वर महादेव में जल चढ़ाने जाते है। तो वही विश्व का एकमात्र लक्ष्मण मंदिर भी यहीं है जोकि भगवान विष्णु के शेषशैय्या अर्थात शेषनाग का अवतार है।
भगवान शिव के भैरव अवतार की एक वीभत्स और दुर्लभ मूर्ति भी खुदाई में प्राप्त हुई है जो संग्रहालय में सुरक्षित रखी गई है।
यहां महिषासुर मर्दिनी आदिशक्ति की भी अत्यंत कलात्मक मूर्तियां रखी गई है।
श्रृंगार रस की भी सुन्दर मूर्तियां आनंद मुद्रा में है।
वीर रस की भी मूर्तियां है जिसमे स्त्री पुरुष को मल्ल युद्ध करते दिखाया गया है। साथ ही सुन्दर शस्त्रों से भी सुसज्जित है।
तो वही भगवान विष्णु के नरसिंह अवतार की बिल्कुल विशेष आकृति में प्राप्त हुई है।
इतना ही नहीं भगवान शिव की शिवलिंग रूप में अनेकोनेक प्रकार की लिंग है जो कि संग्रहालय में सुरक्षित रखी गई है।
इसके अतिरिक्त शेर के साथ क्रीड़ा करते हुए पुरुष की मूर्ति और गणेश जी व अन्य देवी देवताओं की भी मूर्तियां थी।
मेरा मानना है कि इन भव्य शिवलिंगों को मंदिरों में विधिविधान से स्थापित करके पूजा का अधिकार देना चाहिए। मेरी सरकार से प्रार्थना है की लक्ष्मण मंदिर में भी पूजा करने का अधिकार देना चाहिए। छत्तीसगढ़ के राजिम में भी इसी शैली में मंदिर बने है वहां अनवरत विधि विधान से पूजा हो रही है। एकमात्र ब्रह्मा जी के मंदिर पुष्कर में भी पूजा हो रही है। तो केवल सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर में पूजा क्यों नहीं हो रही? इस मंदिर में पूजा होने से इसकी ख्याति दूर दूर तक फैलेगी ऐसा मेरा मानना है।
परन्तु वास्तविकता यहीं है कि सरकार को मंदिरों से कोई मतलब नहीं है। पुरातत्व विभाग का ठप्पा लगाकर मंदिर को उपेक्षित कर दिया गया है। जहाँ कोई सुविधा ही नहीं है। यह मंदिर एक खंडहर के अतिरिक्त और कुछ प्रतीत नहीं होता इसकी भव्यता पूर्णतः समाप्त हो चुकी है। कहने को तो सरकार ने इसे पर्यटक क्षेत्र घोषित कर दिया है लेकिन यहाँ कोई आना नहीं चाहता। प्राकृतिक आपदाओं और इस्लामिक बर्बरता से वीरता से टक्कर लेने वाला मंदिर अब सरकार की उपेक्षा की भेंट चढ़ गया है।
खाने के लिए तो आपको कुछ नहीं मिलेगा लेकिन पीने की पूरी व्यवस्था है। मंदिर से 5-6 किलोमीटर दूर आपको सरकारी ठेका के दर्शन मिल जायेंगे। आपकी गाड़ी ख़राब हो जाएगी तो कोई मेकेनिक नहीं मिलेगा यहाँ तक की अगर पेट्रोल खत्म हो गया तो डरने की कोई बात नहीं आप शराब का उपयोग करके गाड़ी चला सकते है। खाने के लिए कोई रेस्टॉरेंट नहीं मिलेगा लेकिन चखने की भरपूर व्यवस्था है। और जो नाममात्र के रिसोर्ट और रेस्टॉरेंट है वो आम आदमी के पहुंच से बाहर है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि कोई महिला इन रिसार्ट या रेस्टॉरेंट में जाएँगी। यह क्षेत्र महिलाओं और बच्चों के लिए बिलकुल भी सुरक्षित नहीं है। सुलभ शौचालय भी आपको कही नहीं दिखेगा।
स्थानीय लोग जंगल को धीरे धीरे काटने में लगे हुए है। जिस मंदिर को जंगल के बीचोबीच होना चाहिए था वह जंगल स्थानीय लोगो और सरकार की दया से अब मंदिर से 15 किलोमीटर दूर चला गया है। महानदी भी धीरे धीरे सिकुड़ कर दूर होती जा रही है। मुझे लगता तो नहीं है कि वहां कोई हाथी रहता होगा लेकिन बोर्ड जरूर लगे है। और अगर वाकई हाथी से सामना हो गया तो वहां कोई फारेस्ट गार्ड भी आपकी मदद के लिए नहीं मिलेगा। कुल मिलकर यहां की व्यवस्था भगवान भरोसे चल रही है।
मुझे अपने आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा है कि क्या ये वही सिरपुर है जो कभी दक्षिण कौशल यानि छत्तीसगढ़ की राजधानी रही थी। अब यह ग्राम पंचायत मात्र रह गई है। मैंने अपने मन में जो सिरपुर की छवि बनाई थी वास्तविकता से परे है। हालांकि यह कोई नई बात नहीं है कि छत्तीसगढ़ में पर्यटन अपनी अंतिम सांसें गिन रहा है।
किन्तु सरकार की इच्छा शक्ति हो तो क्या कुछ नहीं किया जा सकता। समस्या है तो समाधान भी है। सबसे पहले उस सरकारी शराब के ठेके को हटाया जाए। वृक्षारोपण किया जाये स्थानीय लोगों को जागरूक किया जाए। सरकारी बस चलाया जाए जो सभी पर्यटन क्षेत्र के दर्शन करवाए साथ ही टूर गाइड भी नियुक्त किया जाए जो इस क्षेत्र का इतिहास बता सके। यहां का इतिहास केवल बौद्ध नहीं है यहाँ महान सनातन सभ्यता का विकसित क्षेत्र था यह बताया जाए। अच्छा रेस्टॉरेंट खोला जाए गढ़कलेवा भी अच्छा विकल्प है। पीने के पानी की व्यवस्था हो। सुलभ शौचालय का निर्माण किया जाए। फारेस्ट गॉर्ड भी नियुक्त किया जाए। जंगल और गांव में सामंजस्य होगा तभी इस क्षेत्र की भव्यता वापस आएगी।
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- "जय जोहार" आशा करती हूँ हमारा प्रयास "गोंडवाना एक्सप्रेस" आदिवासी समाज के विकास और विश्व प्रचार-प्रसार में क्रांति लाएगा, इंटरनेट के माध्यम से अमेरिका, यूरोप आदि देशो के लोग और हमारे भारत की नवनीतम खबरे, हमारे खान-पान, लोक नृत्य-गीत, कला और संस्कृति आदि के बारे में जानेगे और भारत की विभन्न जगहों के साथ साथ आदिवासी अंचलो का भी प्रवास करने अवश्य आएंगे।
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